‘‘आँसू’’
उदासीनता,
और
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उपेक्षा,
तुमसे मिले ये तीन प्रश्न जब भी हल करने बैठा हूँ
उत्तर में,
आसूँ ही निकले हैं।।
दिनेश कुमार ‘‘शलभ’’
परिचय
श्री डी० के० पाण्डेय जी, सिविल डिफेन्स विभाग में सहायक उपनियंत्रक पद से सेवानिवृत्ति के बाद आर्य वानप्रस्थ आश्रम, ज्वालापुर, हरिद्वार में प्रधान के रूप में अनेकों बार निर्वाचित हुए हैं एवं वर्तमान में भी इसी आश्रम में सेवा कार्य कर रहे हैं। अपने कार्यकाल में उन्होंने आश्रम में हिन्दी एवं संस्कृत के काव्य सम्मेलनों का आयोजन किया है। हिन्दी साहित्य में रूचि बाल्यावस्था से ही रही है एवं 14 वर्ष की उम्र में पहली रचना लिखी। इन पर अपने पिता स्व० श्री राम शर्मा जी का प्रभाव रहा जो कि हिन्दी प्रवक्ता थे। शासकीय सेवा काल में भी इन्होंने अनवरत रूप से साहित्य मंचो को साझा किया हैं।
227 दिन पहले 10-May-2024 3:42 PM
जिन्दगी धुआँ हैं
अरमानों का फूँस,भावों का ढेर,
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दुखों की सामिग्री,
करूणा का तरल और ज्वलन पदार्थ,
अर्थात् एक चिता का मार्मिक प्रारूप।
जिसे सामाजिक नियमों की,
दीपशलाका से अग्नि दे दी गई,
तनिक क्षणों में ही भावों।
अरमानों और कल्पनाओं की चिता धधक उठी
लपटों के घेरे में जल-जल कर राख हुई,
तभी अचानक उसी राख के ढेर से धुयें,
के गोल-गोल गुबार उठे,
लेकिन वह धुआँ नहीं,
जिन्दगी के अश्रु थे।
तरल नहीं शुष्क थे,
इसीलिए ढेर पर नही ऊपर उठ,
रहे थे जिनमें एक मूक ध्वनि थी,
जिन्दगी जुआँ है।।
दिनेश कुमार ‘‘शलभ’’
227 दिन पहले 10-May-2024 3:45 PM
बटवारा,(मौलिक रचना)
आओ भईया खेत खाली, व्यापार सीजन ऑफ है,
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अपना तुम हिस्सा बंटा लो,जो हमारे पास है।
माता-पिता ने संजोया, आपका अधिकार है,
जो भी हिस्से में मिलें, सबको वही स्वीकार है।
घर-खेत बांटो और गृहस्थी, बैंक का भी देखना,
व्यापार और व्यवहार बांटो, चल अचल का लेखना।
घर का मुखिया बड़ा भाई, आज वह मजबूर है,
न चाहते भी वह करे, दुनिया का यह दस्तूर है।
बेईमान कहलाता वही, खेती बिजनेस जो करें,
लाभ के संग हानि होती, जो न कोई चित धरें।
सिर्फ भौतिक साधनों से, सुख नहीं मिल पाएगा,
अपनो के बिना सूना सफर, रह रह के मन पछताएगा।
‘परदेशी’कहता हिस्सा बांटो, दिल नहीं दल बांटना,
वस्तु का एवरेज लगा लो, बेकाम कर ना काटना।।
रचयिताः-
सुधीर अवस्थी ‘परदेशी’
कवि/लेखक,पत्रकार (हिन्दुस्तान)
राष्ट्रीय प्रवक्ताः- सनातन धर्म प्रचार महासभा
ब्लाक अध्यक्ष अहिरोरीः-हरदोई पत्रकार एसोसिएशन
227 दिन पहले 10-May-2024 3:58 PM
आदमी मशीन हो गया
अब मुझे यकीन हो गया,
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आदमी मशीन हो गया।
दौड़ा ही जा रहा था, अंधी सी दौड़ में,
जब होश आया, देखा अपने थे दौड़ में ।
अपना पराया देखा,अपना मिला नहीं,
ओ जिन्दगी के मालिक,तुझसे गिला नहीं।
झूठे थे उसके वादे, ना अच्छे थे इरादे,
दिन रात खटते-खटते, ईर्ष्या में जलते जलते।
कर्म से मलीन हो गया,
आदमी मशीन हो गया।
संसार में जो आया है,जाना उसे पड़ेगा,
डोली पे जो चढ़ा है,अर्थी पे भी चढ़ेगा।
वो काल से बचा न,बाँधे था काल पाटी,
माटी से दूर भागे,मिल जायेगा वो माटी।
झूठै है उसका लेना, झूठै है उसका देना,
झूठै है उसका भोजन, झूठै लगे चबेना।
झूठ का मुनीम हो गया, आदमी मशीन हो गया।।
राजकुमार दीक्षित
परिचय
नाम-राजकुमार दीक्षित
पिता-श्री रामशरण दीक्षित
पता-पो0मवई खुर्द,माल,लखनऊ
शिक्षा-सिविल इंजीनियर
जन्म-02/10/1972
रूचि-काव्य सृजन
प्रकाशित पुस्तक-समय का यथार्थ(अमेजॉन पर उपलब्ध है)
227 दिन पहले 10-May-2024 4:06 PM