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Jyotsana Singh

                 सपने सच होते हैं।
स्वप्न को हकीकत में तब्दील होते हुए देखना बेहद सुखद होता है। ‘‘अविरलधारा’’ एक ऐसा ही स्वप्न बनकर साहित्यिक पत्रिका के रूप में साकार हुआ है। साहित्य समाज का दर्पण है यह तो हम बीते वक्त से सुनते चले आ रहे हैं। ‘‘अविरलधारा’’ पत्रिका का दर्पण थोड़ा और पारदर्शी है। यह पत्रिका अपने आप में साहित्य और समाज के साथ ही साथ समाचार, धर्म और स्वाद को भी अपने भीतर समेटे हुए है।

और Close एक डिज़िटल पत्रिका है। आज हमारा पूरा जीवन नेट के तार-तार से जुड़ा हुआ है। जिस तरह से हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह से तेजी से होते इस डिज़िटलीकरण के भी दो पहलू हैं और हम भी उन दोनों पहलुओं से अलग नहीं हैं। फिर भी हम खुद को विशेष बनाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहेंगे। यह ‘‘टीम अविरलधारा’’ का आप से वादा है।
आज समाज में लिखा बहुत जा रहा है। उसे लोगों तक पहुँचाने के रास्ते भी सुगम हुए हैं किंतु हर प्लेटफॉर्म पर हमारी लेखनी कितनी सुरक्षित है, यह प्रश्न बहुत बड़ा है। हम आपके लेखन के सुरक्षित होने का दावा तो नहीं करते किंतु हमारी पूरी ‘‘टीम अविरलधारा’’ यह हलफ़ जरूर उठाती हैं कि आपका लेखन यहाँ सुरक्षित रहेगा। 
हमने दो स्तंभ ‘नई कलम’ और ‘नन्हीं क़लम’ के नाम से भी पत्रिका में समाहित किए हैं। यह हमारे उन क़लमकारों के लिए हैं जिन्होंने अपने मनोभावों को शब्दों का जामा पहनना अभी शुरू ही किया है। उन्हें हम प्रकाशित होने का स्थान देंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा उनको पढ़ा जा सके, उनके हृदय में उठते भावों को समझा जा सके। यदि नई क़लम स्वयं इजाज़त देगी तो उसके काव्यगत या कथागत भावों को काव्य और कथा की कसौटी पर कसकर उसकी लेखनी को हमारे अनुभवी क़लमकार परिष्कृत भी करवा सकते हैं।
लेखन कार्य एक दुरुह कार्य होते हुए भी बेहद सुकून भरा काम होता है। किसी भी रचना का जन्म होता ही तब है जब वह लेखक के हृदय के तारों को झंकृत करके उसे विवश  करती है कि वह अपने शब्दों की माला को विचारों के माध्यम से वरण करे। इस सुंदर समागम से ही लेखनी चलती है। अविरलधारा की संपादक होने के नाते मैं माँ शारदे से विनय करती हूँ कि वह पत्रिका में आने वाली हर कलम पर अपना वरदहस्त् रखें। नन्हीं कलम को हम बिल्कुल वैसा ही रखना चाहते हैं जैसा हमारे बाल कलाकार हमको भेजेंगे। बच्चे हमारा भविष्य होते हैं और हम अपने भविष्य को उनके देखे स्वप्न में स्वच्छंद विचरने देंगे। बच्चे पत्रिका में स्वयं की लिखी कविता, कहानी या चित्र कुछ भी भेंजें उनका खुले दिल से स्वागत है।
प्रमुख रूप से हरदोई शहर के व्यापक साहित्यिक समाज के लिए यह पत्रिका, टीम ‘‘अविरलधारा’’ ने अपना कीमती वक्त देकर तैयार की है। वैसे तो इसमें सभी साहित्यिक मित्रों का स्वागत है। पत्रिका का उद्गम शहर हरदोई का होने की वजह से हम हरदोई के साहित्यकारों का सहयोग विशेष रूप से चाहेंगे। यह आपकी अपनी पत्रिका है। आपके शहर की 

रौशनाई है अतः आपके सहयोग के बिना इस कली को कुसुम बनने में बहुत वक्त लग जाएगा। 
आपका सहयोग रहा तो यह पत्रिका जल्दी ही विकसित पत्रिकाओं की श्रेणी में अपना स्थान बना लेगी, ऐसा हमारा विश्वास है। एक बात और हम वक्त-वक्त पर साहित्यिक गोष्ठियाँ करते रहेंगें। उन गोष्ठियों में हम पत्रिका में शामिल रचनाकारों को मंच देने का भी वादा करते हैं।
ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सभी का जीवन इन्द्रधनुषी हों। स्वस्थ रहिए मस्त रहिए। सुंदर लिखिए और खूब पढ़िए क्योंकि पढ़ेंगे आप तभी तो रचेंगे आप।
अविरलधारा एक टीम के रूप में कार्य करती है। इसके सभी कार्यकर्ता अवैतनिक हैं। हम सबने जो सपना देखा उसे पूरा करने के लिए हम तन-मन और धन से समर्पित हैं।
टीम अविरलधारा के पदाधिकरियों की सूची निम्न है।
1.    ज्योत्सना सिंह (प्रधान-संपादक)
2.    श्रीया शर्मा (मुख्य कार्यकारी एवं प्रभारी समाचार प्रभाग)
3.    दीपा शर्मा (संयोजिका)
4.    सुन्दरम पाण्डेय (आई0टी0 विश्लेषक  एवं मुख्य तकनीकी अधिकारी)
5.    मनोज कुमार शर्मा (संस्थापक)
हम अभार व्यक्त करते हैं ‘जोविएल डिज़िटल सर्विसेस’ नोएडा के मुख्य तकनीकी अधिकारी श्री सुंदरम पाण्डेय जी का जिनके मार्गदर्शन में उनकी पूरी टीम ने इस पत्रिका के डिज़िटलीकरण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया जा रहा है।
आपके सहयोग की आकांक्षी आपकी अपनी संपादक
ज्योत्सना सिंह
ओमेक्स,गोमती नगर लखनऊ।

 साहित्यिक परिचय
 नाम-ज्योत्सना सिंह
जन्म-06-02-1969
माता-स्वर्गीय श्रीमती कमला सिंह
पता-स्वर्गीय श्री अनिरूद्ध बहादुर सिंह
शिक्षा-परा स्नातक हिन्दी साहित्य 
मो०न०-8354016004
सम्मानः शारदेय सम्मान, विश्व हिन्दी रचनाकार मंच से काव्य अमृत सम्मान, के.जी.साहित्य सम्मान से सारथी सम्मान, lcww कहानी प्रतियोगिता में2023और2024दोनों ही बार प्रथम पुरस्कार।
अखिल भारतीय उत्थान परिषद सम्मान से साहित्य श्री सम्मान।
साहित्यिक परिचय-‘‘सारंग’’नाम से लघुकथा संग्रह प्रकाशित। 
अहा! जिंदगी, दैनिक जागरण, नवभारत टाईम्स,अमर उजाला, रूपायन,कथा क्रम,वनिता,HPS 
पत्रिका,सोच-विचार,विभोस-स्वर,गौतमी,कलमकार मंच और बाल पत्रिका चिरैया एवं देवपुत्र आदि कई पत्र-पत्रिकाओं में कई बार रचनाओं का प्रकाशन। 
पिट्स बर्ग अमेरिका की ई-पत्रिका सेतु में अनेकों बार रचना प्रकाशित,रचनाकार मंच,अभिव्यक्त

प्रकाशन, जनखबर लाइव, आदि कई पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन 
पुस्तकों तथा पत्रिका के उपसंपादन का कार्य
रेडियो अमेरिका से तीन लघुकथाओं का प्रसारण
इंडिया वाॅच चैनल पर काव्य पाठ।
AIR FM  बरेली AIR लखनऊ से लघुकथा तथा चार बार कहानी पाठ। गाथा मंच पर कथा पाठ।
दूरदर्शन लखनऊ से इंटरव्यू प्रसारित।
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142 दिन पहले 10-May-2024 3:14 PM

Jyotsana Singh

              सन्यासिनी
स्वाहा! स्वाहा! स्वाहा! की ध्वनि प्रतिध्वनि उसकी कुटिया से आती हुई बाहर के माहौल को भक्तिमय कर रही हो ऐसा तो नहीं था। क्योंकि वो जगह भक्ति के लिए उपयुक्त ही नहीं थी। वह तो जीवन के अटल सत्य को दर्शाने  वाला स्थान था। शमशान  के भीतर थी उसकी कुटिया और वह थी 'शमशान की सन्यासिनी' पूरे माहौल में चमड़ी के जलने से आने वाली गंध के साथ उसकी मदिरा की दुर्गन्ध ने वातावरण को वीभत्स सा बना रखा था। हर आने वाली लाश के परिजनों को उसे भेंट चढ़ानी होती थी, नहीं तो यहाँ से जाने वाला हर आदमी परेशान रहता है, ऐसा मिथक फैला रखा था उसने और शमशान के कर्मचारियों ने। 

और Close कपड़े का एक लम्बा झिंगोला जैसा वस्त्र काले घने लंबे बाल और चेहरे पर काले ही रंग का लेप उसकी छवि को डरावना सा बनाते थे। उसकी आँखें शराब के नशे  में यूँ लाल रहती जैसे दो दहकते हुए कोयले के अंगार जिसको देखने मात्र से उसके अंदर की आग की दहक का पता चलता था। जितनी क्रूरता और कठोरता वह अपने व्यक्तित्व में ला सकती थी, वह सब उसने अपने में समाहित किया हुआ था। बरसों से वक्त मौसम या माहौल कुछ भी रहा हो पर सन्यासिनी ने अपनी पूजा में कोई भी विघ्न नहीं आने दिया था। शमशान के लोग जानते थे कि वह  कोई सिद्धि प्राप्त करना चाहती है, जिसकी वजह से वह  शमशान की देवी का हवन और अर्चना रात्रि भर करती है। भोर में  शमशान आने वाली पहली अर्थी के दर्शन  करके ही वह  मधुपान करती है।
आज भी वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त थी। हवन करके शमशान की सीढ़ियों से उतरती हुई पहली अर्थी के दर्शन करने को वह पास आई ही थी कि उसके पाँव ठिठक गये। इतने सालों में आज पहली बार हुआ कि वह किसी अर्थी को देखकर विचलित हुई हो।
ये क्या मधु दीदी! पूरे सोलह श्रृंगार के साथ दुनिया से विदा हो गई। अभी भी गले में वही मोहर पहने है। एक पल को ठिठके अपने कदमों को उसने बड़ी कठोरता से संभाला और अपने नजराने के तौर पर गले से वो मोहर उतारने लगी कि एक किशोर की मधुर वाणी ने उसे रोकते हुए कहा-" आप ये न उतारें मेरी अम्मा की प्रबल इच्छा थी की वह चिता पर इसे पहन कर ही जलें। आपको इसके बदले में और जो चाहिए बता दीजिए मैं दे दूँगा-"।  उसने उस नवयुवक को नजर भरकर देखा और दिल को कठोर कर बोली-" हम यही लेंगे,नहीं तो मेरी पूजा और तेरी ये चिता दोनों की आग में दहक पूरी न होगी"। नवयुवक ने सहमें हुए शब्दों में कहा-" मैंने अपनी अम्मा को वचन दिया था। वह कहती थीं इसमें उनकी जान बसती है"। उसे बीच में ही फटकारते हुए वह बोली-" हाँ, तो जब जान ही न रही तब इसका क्या"?
इतना कहकर सन्यासिनी ने अब तक के रुके हुए हाथ को आगे बढ़ाया ही था कि नवयुवक घुटनों पर बैठ उसके आगे हाथ जोड़ कर विनती करने लगा-" मुझे  मेरी अम्मा को दिया वचन पूरा कर लेने दीजिए"। उसके निर्दोष मुखड़े को देखकर वह एक पल को फिर विचलित हुई कठोरता से उसने लाश के गले से वो मोहर उतार ली। ये देख किशोर बिलख उठा, परिजन उसे कुछ समझाते कि सन्यासिनी ने मोहर वापस रख लाश के माथे को चूम लिया और अपनी कुटिया की तरफ तेजी से बढ़ गई। शराब की गंध और चमड़ी जलने की दुर्गंध से पूरे वातावरण में जुगुप्सा का माहौल था। लकड़ियों से चिता सजाई जा रही थी।
अपनी कुटिया में आकर वह मधुपान करने लगी। वह जितनी भी शराब पीती उसकी व्याकुलता
उतनी ही बढ़ती जाती। आज वह खुद को नशे में धुत्त कर देना चाह रही थी। पर नशा था की उस पर असर ही न कर रहा था। वह अपने पूरे होशो -हवास में बीस साल पीछे की जिन्दगी 
के पन्नों को अपने समक्ष फड़फड़ाते हुए देख रही थी। गोरा चिट्टा रंग सुकोमल सुंदर काया 
घने लंबे बाल और गोल-गोल मुखड़े पर बड़ी-बड़ी हिरणी जैसी आँखें। सुंदरता के सारे 

मायने पर खरी उतरती सुधा। अपने स्वभाव में भी चंचल तितली सी खुशमिजाज लड़की थी। 
उसके ठीक विपरीत थी उसकी मधु दीदी सांवला रंग घुंघराले बाल और तुनक मिजाज स्वभाव हर बात को दिल में रख कर बदला लेने जैसी प्रवृत्ति थी। सुधा थी कि अपनी मधु दीदी पर जान निछावर करती थी। 
मधु दीदी को उसके रंग-रूप से कष्ट  तो शुरू से ही था। पर वक्त जब ब्याह का आया और हर कोई उसके लिए न बताकर रिश्ता सुधा के लिये बताने लगा तो उसकी इर्ष्या और बढ़ने लगी थी। किस्मत से एक अच्छा रिश्ता मिला और मधु का विवाह हो गया। मधु अब बहुत खुश थी क्योंकि उसका विवाह एक बहुत ही संपन्न घर में हुआ था। वक्त बीता और मधु के पाँव भारी हुए। जब यह बात उसके मायके पहुँची तब सबसे ज्यादा खुश सुधा ही हुई। फागुन माह लग चुका था मधु की ससुराल से सुधा को होली खेलने का बुलावा आया तो सुधा बहुत खुश हुई। मधु दीदी की ससुराल जाने के लिए पिता से जिद करने लगी। जब लाड़ली बिटिया की जिद पर पिता ने हाँ कर दी तब माँ बोली भी थी-"सुधा को मत भेजो। एक तो जवान बिटिया ऊपर से त्यौहार वह भी होली का न जाने क्यों मुझे ठीक न लग रहा"। क्या ठीक  न लग रहा अम्मा, होली तो त्यौहार ही जीजा-साली का है। हम तो जायेंगे मधु दीदी के यहां होली खेलने"। अपनी लाड़ भरी बातों से अम्मा को मनाकर वह मधु दीदी की ससुराल जाने की तैयारी करने लगी कि तभी अम्मा ने गहनों की अलमारी खोल उसे एक चेन पहनने को देते हुए कहा-"लो इसे पहन लो त्यौहार में बहन की ससुराल नंगे गले जाओगी तो लोग क्या कहेंगे"?
तभी गहनों के बीच रखी चमकती सोने की मोहर देख वह बोली-"अम्मा, ये भी चेन में डाल दो  न इसे हम पहनेंगें।"न बिटिया न,ये तो मधु को पसंद है। जब उसका बच्चा होगा तब हमने उसे देने का वादा किया है। ये न पहन बिटिया उसे अच्छा नहीं लगेगा"।
सुधा ने अम्मा के हाथ से मोहर लेते हुए कहा-"जब दीदी के बच्चा होगा तब दे देना। तब तक हम इसे पहन कर जीजा जी  पर जरा रौब तो झाड़ लें"। खिलखिलाते हुए वह उस सोने के टुकड़े को पहनकर मधु दीदी की ससुराल होली खेलने क्या गई कि उसकी जिंदगी ही विष हो गई। ससुराल में सब उसे देख जितना खुश हुए मधु उतना ही जल-भुन गई। सुधा मेहमान थी और पहली बार आई थी। सब  सुधा को ही पूछ रहे थे। मधु की तरफ लोगों का ध्यान थोड़ा कम क्या हुआ कि वह तो बिफर ही पड़ी और सुधा को एकांत में ले जाकर बोली-" ये तूने क्यों पहनी? यह तो अम्मा ने हमको देने को कहा था"। सुधा ने अपनी मधु दीदी को प्यार से थपकी देते हुए कहा-"हाँ,हाँ जब बच्चा आएगा तब तुम ले लेना"। तभी उसके जीजा जी वहाँ आ गए और बोले-"क्या खुसुर-फुसुर चल चल रहा है दोनों बहनों में"? मधु गुस्सा छुपाते हुए मुस्कुराकर बोली-"ज्यादा मेरी बहन के पीछे न पड़ो"। सुधा ने चुहल करते हुए कहा-"पड़ो जीजा जी होली का माहौल है। होली तो होती ही जीजा-साली की है। क्यों दीदी है न"?
उसके अल्लहड़पन को देखकर उसके जीजा ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेर दिया। यह सब मधु के बर्दाश्त के बाहर हो गया। बहन के प्रति बचपन से भरी ईर्ष्या  और मोहर के प्रति लालच ने विकराल रूप धर लिया। उसने रंग वाले दिन सुधा को धोखे से शराब पिला दी और नशे की हालत में उसे पीछे के कमरे में बंद कर दिया। खुद रंग का मजा लेने लगी। पर वक्त को तो कुछ और ही मंजूर था। अपनी साली को रंग खेलते न पाकर उसे खोजते हुए उसके जीजा जी उस कमरे तक पहुँच गये। नशे में मदमस्त हो रही सुधा बेकाबू हुई जा रही थी, भंग का रंग जीजा जी पर भी अच्छा खासा चढ़ा हुआ था। वह उसके रूप में ऐसा खो गए कि नशे ने रिश्तों की सीमा ही पार कर दी। घर  की नौकरानी ने ये खबर मधु को दी तो होली के सारे रंग स्याह हो गये। वह पूरे घर के साथ उस कमरे में जा पहुँची। गुस्से में उसने सुधा और अपने पति के संबंधों के चिथड़े उड़ा दिये। बदहवास सुधा को उसी हालत में घर से निकाल 
दिया। पति तो पुरूष था उसका कुसूर का पलड़ा हल्का कर दिया गया। सुधा एक तो स़्त्री वह भी पराए घर की ऊपर से नशे की हालत में कहाँ क्षम्य था उसका कसूर? मधु दीदी ने अपने घर के पट उसी क्षण उसके लिये बंद कर दिये। सुधा निर्लज्जता का दाग दामन पर लेकर कहां जाती। उस ढलते दिन के धुंधलके में भटकती हुई वह जा पहुँची औघड़ साधुओं की एक टोली में। रिश्तों की जो डोर उससे टूटी थी। उसका जाल बिछाने वाली उसकी अपनी ही बहन थी। यह बात उसे कहाँ पता था? वह तो सारा दोष अपने नशे को दे खुद को ही कोस रही थी। यही वजह थी उसने खुद को बस्ती से दूर औघड़ सन्यासियों के साथ दर-दर का राही बना दिया और खुद को शराब का आदी। औघड़ की दीक्षा देने वाले उसके गुरू ने ही उससे कहा था कि शमशान में रहकर वह देवी की उपासना करे तब ही उसे अपने किए अपराध से निजात इस जीवन में मिल जाएगी नही तो रिश्ते कलंकित करने वाला न जाने कितने जन्मों तक इसका दंड भोगते रहते हैं। वह नशे से थर-थर काँप रही थी कि किशोर उसकी कुटिया तक आ पहुंचा और बोला-"आपने कोई अपराध नहीं किया मेरी अम्मा की ईर्ष्या ने आपको अपराधी बनाया। मेरे पिता ने मेरी अम्मा को कभी माफ नहीं किया और वह घर में रहते होते हुए भी सन्यासी का जीवन जीते हैं। मेरे पिता ने मुझे आप से आशीर्वाद लेने को कहा है। वह जो दूर गेरूए वस्त्र में खड़े सन्यासी हैं वह मेरे पिता है"। यह सब सुन सन्यासिनी सुधा की दहकती अंगारों सी आँखों से जलती हुई अश्रु धारा का सैलाब फूट पड़ा। उसने वहाँ रखे अपने त्रिशूल को अपनी छाती में उतारते हुए कहा-"रिश्तों के रंग को बदरंग करने की मेरी सजा आज पूरी हुई"। स्याहा हो चुकी सुधा के इर्द-गिर्द लहू की रक्तिम धारा फूट पड़ी। वातावरण और भी भयावह हो गया।

ज्योत्सना सिंह
गोमती नगर लखनऊ   

 



142 दिन पहले 10-May-2024 3:17 PM

ILA Singh

                                 मेकिंगचार्ज
मेकिंगचार्ज

और Close /> ’’टमाटर किस भाव? ’’बड़े-बड़े,लाल-लाल टमाटर एक तरफ करते हुए 
 बुजुर्गवार ने प्रश्न किया।
’’सात रूपए किलो,बाबू जी! ’’सब्ज़ी वाली तराजू सँभालते हुए बोली।
’’सात रूपए किलो,’’सज्जन ने चौंककर प्रति प्रश्न किया।
’’जी बाबू जी,’’ सब्ज़ी वाली थोड़ी सहमी-सी बोली। 
’’अरे भाई,हद करते हो तुम लोग,मण्डी में दस रूपए में ढाई किलो मारे-मारे फिर रहे हैं।’’ऐसा कहते हुए भी सज्जन के हाथ टमाटर छाँटने में लगे थे।
’’अरे बाबूजी, मण्डी का भाव रहि ऊ...फेर टिमाटरऊ तौ...देख लेऔ,...केता बढ़िया रहि’’।
’’अरे, तुम लोग भी ना...बताइए बहन जी!
‘‘आप ही बताइए,...अभी तो ज़रा सब्ज़ी सस्ती हुई है, इस सरकार के राज में और ये लोग फिर भी लूट मचाते हैं’’ मैं सब्ज़ी तुलवा चुकी थी। पैसे देते हुए मैंने उनकी तरफ नजर डाली। अच्छे संभ्रांत,पढ़े-लिखे लगे। मुझे, कपड़ों से भी ठीक-ठाक पैसे वाले ही लगे। मैं हल्की-सी मुस्कराकर आगे बढ़ गई। 
’’ऐसे ही लोगों की वजह से इन छोटे लोगों का दिमाग खराब हुआ है, चार पैसे आ जाते हैं तो दिमाग ठिकाने नही रहता। बिना मोल-भाव के खरीददारी करेंगे और समझेंगे बड़े‘कूल’ हैं हम’’। मेरे कानों में पीछे से बुजुर्ग की धीमी और तीखी आवाज पड़ी। मेरे कदम रूक गए...जो बात टल गई थी लगा...उसमें उलझना ही पड़ेगा।
      मुझे वापस आया देख थोड़ा सकुचाकर नजरें चुरा गए और सब्ज़ियाँ टटोलने लगे। सब्ज़ी वाली भी थोड़ी घबरा गई, पता नहीं उसे किस बात से डर था। दो रूपए ज्यादा ले रहीं थी, इस बात से या मुझ जैसे ग्राहक पर अपनी पोलपट्टी खुलते देख घबरा रही थी। ज्यादातर सब्ज़ी उसी से लेती हूँ, उसका कोई ठेला नही है। बस एक निश्चित जगह सड़क के किनारे प्लास्टिक बिछा,बड़ी सजा-सँवारकर सब्ज़ियाँ रखती है। सब्ज़ी एकदम ताज़ा और बढ़िया होती है। हाँ, कीमती थोड़ी ज्यादा होती है।
 उसकी सब्ज़ियों के पास पहुँचते ही रंग-बिरंगे फूलों के बगीचे में पहुँचने का अहसास होता है। लगता है जैसे एकसाथ सारे फूल खिलखिला उठे हों, या हरी-भरी वादियों में पहुँच गए हों और कोई रंगों से भरा दुशाला ओढ़ बाँहे फैलाए आपको बुला रहा हो।
लाल-लाल ताज़ा टमाटर,अपनी चमकती चिकनी त्वचा से किसी बच्चे के गालों की स्निग्धता को मात करते दिखते। झक,सफेद, ताजा मूलियाँ... अपने सर पर हरी पत्तियों का ताज सजाए इठलाती नजर आतीं। पालक,मेथी,बथुआ,धनिया आदि पत्तेदार सब्ज़ियों को वह इतने करीने से रखती कि लगता...किसी बँगले का करीने से कटा-छँटा मखमली लाँन। मटर... इतनी ताज़ा... और हरी होती कि... उठाकर खाने का मन करने लगे। बैंगन,लौकी,टिंडे इत्यादि अपनी त्वचा से...किसी नवयौवना को चुनौती देते लगते। लब्बोलुबाब यह कि वहाँ पहुँच कर आप सब्ज़ी खरीदने का लोभ संवरण नही कर पाएँगे। खरीदने दो सब्ज़ी गए हैं...लेकर चार ले आएँगे...।
मेरे टहलने के रास्ते में ही, सब्ज़ी वाली से पहले एक और भी सब्ज़ीवाला ठेला लगाता है। 
मगर उसकी सब्ज़ियाँ बड़ी बीमार-बीमार सी होती हैं...असमय बुढ़ाए बैंगन, ढेरों झुर्रियों के साथ...इस आस में कि...तेल-बनाए आलू-बैंगन और नाम बहू का होय...। दबे-कुचले से 
टमाटर...कुपोषण के शिकार बच्चों की तरह...उनके बीच से झाँकता कोई-कोई लाल टमाटर...
जैसे देहाती,गरीब,कमजोर बच्चों के बीच...कोई स्वस्थ, शहरी बच्चा गलती से पहुँच गया हो। 
सूखी,... अपना हरापन खो चुकी...काली-काली काई जैसी क्रीम लगाए भिंडी...
मुरझाई मेथी, पालक... आधी हरी आधी पीली पत्तियों वाला धनिया प्रौढ़ हो चुका होता।... बाकी सब्ज़ियों का भी कुछ ऐसा ही हाल होता उसके ठेले पर... एक अजीब सी मुर्दनी छाई होती। जवानी खो चुकी सब्ज़ियाँ तेल-मसालों के साथ पतीलों में जाने को तैयार बैठी थीं पर ग्राहक उनकी बुढ़ाती देह देख बिदक आगे बढ जाते। 
ठेले वाला पानी छिड़क-छिड़क कर उनकी जवानी कायम रखने की कोशिश करता। उससे सब्ज़ी मैं कभी-कभार ही लेती थी...जब मुझे थोड़ी जल्दी होती और सब्ज़ी वाली थोड़ी दूर लगती या... कभी-कभी थोड़ी इंसानियत।... बाकी लोग भी कम ही लेते थे उससे,इसी से बेचारे की सब्ज़ी और बुढ़ाती जाती। लेकिन इधर कुछ दिनों से उसके यहाँ से भी नियमित एक-दो सब्ज़ी ले ही लेती हूँ। बंदा बड़ा व्यावहारिक निकला...मेंरी कमजोर नस पकड़ चुका था...मोल-भाव करती नहीं हूँ, पता नहीं कैसे एक दिन कीमत पूछ ली, बस वह शुरू हो गया बड़े मीठे लहजे में-’’अरे मैडम,आप रोज के ग्राहक हो, आपसे ज्यादा लेंगे’’’... 
‘‘नहीं-नहीं, फिर भी...ऐसे ही पूछा’’
‘‘अरे हम जानते नहीं हैं क्या आपको,...आप तो मोल-भाव भी नहीं करती। रोज सब्ज़ी भी लेती हैं और कोई चखचख नहीं...वरना मैडम लोग सब्ज़ी जरा सी लेंगे और कानून दुनिया का बताएँगे’’।
अब उसके ठेले के सामने मेंरे कदम थम ही जाते हैं। उसने एम.बी.ए.की डिग्री तो नहीं ली पर उसकी व्यापारिक बुद्धि की कायल हो गई हूँ।....क्या इंसान को अपनी प्रसंशा इतनी अच्छी लगती है... खै़र।
सब्ज़ी वाली के पास आकर उन सज्जन से मुखातिब हुई-‘‘भाईसाहब माँल जाते हैं क्या’’? 
‘‘क्यों’’?
‘‘वहाँ भी मोलभाव करते है’’?
‘‘मैं माँल-वाँल नहीं जाता’’। वे उखड़ गए।
‘‘बड़ी दुकानों, राशन की दुकानों या बाकी चीजों पर पैसे कम कराते हैं’’। 
उनका चेहरा थोड़ा लाल हो उठा था-‘‘देखिए मैडम! जो वाज़िब कीमत होती है...उसे देने में हर्ज नहीं है। पर...ये लोग औने-पौने दाम लगाते हैं...सब्ज़ी जैसी चीज इतनी महँगी’’...
उनकी सोच पर पहले तो हँसी आने को हुई...पर फिर गम्भीर चेहरे से उनसे पूछा’’ आप कहाँ कार्य करते हैं, सर’’?
‘‘ज्वैलर हूँ। सब्ज़ी वगैरा मैं नहीं लाता...नौकर ही लाता हैं वो तो इधर से गुजर रहा था, टमाटर अच्छे लगे तो लेने लगा। कल ही नौकर बता रहा था टमाटर दस रूपए में ढाई किलो’’
ज्वैलर सुन चैंक गई... 
‘‘सर!आपकी दुकान पर जब लोग गहने खरीदने आते होंगे, आप वाज़िब दाम ही बताते होंगे? 
‘‘बिलकुल,हमारा रेट तो सरकार तय करती है।’’
‘‘और मेकिंगचार्ज सर? वो भी सरकार तय करती है’’? 
‘‘नहीं,...अब...वो तो कारीगरी के ऊपर है, जैसा काम वैसा मेकिंगचार्ज’’।
‘‘सही है सर, जैसा काम वैसा मेकिंगचार्ज...इसका भी काम देखिए सर इसका सलीका देखिए.. इसकी सब्ज़ियों को देखकर आप खरीदने के लिए लालायित हुए..तो..तो..सर इसका यह मेकिंगचार्ज है टमाटर पर दो रूपए ज्यादा इसका मेकिंगचार्ज मान लीजिए’’।
उनका चेहरा उतर गया तो मैं थोड़े सांत्वना के स्वर में बोली-‘‘ फिर..फिर इससे इसका घर 
चलता है, सर! आपके लिए दो रूपए.. कोई बड़ी बात नहीं..लेकिन इन बच्चों की थाली में सूखी रोटी के साथ..टमाटर की चटनी भी आ जाए शायद’’...
उनके चेहरे की बढ़ती झेंप को देख मैं आगे बढ़ गई। पर मन नहीं माना और पलट कर देखा 
मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी, सब्ज़ी वाली मुस्कराते हुए उनके थैले में टमाटर डाल रही थी।

इला सिंह
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
(7839040416)ilasingh1967@gmail.com
एम.ए.(इतिहास),बी.एड.
कहानी संग्रह ‘‘मुझे पंख दे दो’’ नोशन प्रेस के उपक्रम प्रतिबिंब से प्रकाशित । कथादेश , परीकथा,अक्षरपर्व,कथाक्रम,विभोम स्वर,अन्विति,संस्पर्श ,त्रिवेणी,सेतु (पिट्सबर्ग से प्रकाशित), आर्य कल्प,किस्सा 32 में कहानियाँ और किस्सा 33 में आलेख प्रकाशित। लघुकथा,काम में लघुकथा। के.बी.एस. प्रकाशन से प्रकाशित साँझा संग्रह में कहानी प्रकाशित ।
 इला सिंह
’’’’’’’’’’’’’’’’’’
104Ghanshyam Palace Near Indian Oil Petrol Pump Munshi Pulia  Chauraha Sector-16,Indira Nagar Lucknow

 



142 दिन पहले 10-May-2024 3:53 PM