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Manoj Sharma

             अपनी बात
किसी भी सभ्यता एवं समाज का मूल आधार उसकी साँस्कृतिक एवं परंपरागत पहचान होती है। कोई भी सामाज़िक व्यवस्था अपने इसी आधार को सहेज कर ही आधुनिक परिवेश को आत्मसात करने की मनोवृत्ति रखती है, यदि यह मनोवृत्ति सशक्त है तो वह ऐसे समाज एवं सभ्यता के अस्तित्व को अक्षुण्य रखती है अन्यथा उसकी अपनी पहचान खोने की असहज स्थिति उत्पन्न हो सकती है। ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं जब आक्रान्ताओं ने अपने शासित क्षेत्रों के विस्तार हेतु स्वार्थो पर आधारित आक्रमण करके भौगोलिक आधिपत्य तो स्थापित किया ही अपितु अधिकृत क्षेत्र की साँस्कृतिक एवं परंपरागत पहचान विलुप्त करने के प्रयास भी किये। कालाँतर में उस समाज की साँस्कृतिक शक्ति से व्युतपन्न ऊर्जा ने ही ऐसे आक्रन्ताओं को पराजित किया और अपनी मूल पहचान बनाये रखी। हमारा भारतीय समाज भी इसका ज्वलंत उदाहरण है। लम्बी पराधीनता के बाद भी हमने अपनी परंपराएँ एवं साँस्कृतिक पहचान बनाये रखी है।

और Close एक प्रयास है ऐसी साँस्कृतिक एवं परंपरागत ऊर्जा के आवाह्न का, अपनी सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करने का, इस पत्रिका के माध्यम से सुस्थापित साहित्य जगत के मार्गदर्शन में नयी साहित्यिक पौध को पुष्पित एवं पल्लवित होने का एक सशक्त मंच उपलब्ध कराता है। निश्चित रूप से ऐसे प्रयास पहले से भी विभिन्न मंचो एवं संगठनो के द्वारा किये जाते रहे हैं, परन्तु जनपद-हरदोई से साहित्यिक डिज़िटलीकरण का यह प्रयास कुछ अलग हट कर तो है ही, इस पत्रिका का दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि आज की आधुनिक एवं व्यस्त जीवन शैली में विभिन्न माध्यमों से हमारी सामज़िक संस्कृति एवं परंपराओं को पहले से अधिक गंभीर आक्रमणों का सामना करना पड़ रहा है जो चाहे हमारी वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था हो या मोबाइल,टी0वी0,या फिल्में इन सभी कारणों का बड़ा गंभीर प्रभाव  हमारी साँस्कृतिक पहचान पर पड़ा है। हमारी सामज़िक ही नहीं पारिवरिक संरचनाएं भी प्रभावित हुयी है, पुरानी पीढ़ी से नयी पीढ़ी को हमारी परंपराएँ हस्तान्तरित न हो पाना-नयी पीढ़ी में संस्कारों के अभाव में अपनी स्थापित परंपराओं से विमुख होते जाना, कहीं न कहीं हमारी मूल पहचान के विस्मृत होते जाने का गंभीर कारण बनता जा रहा है,इस आसन्न परिस्थिति को प्रतिरोधित करना ही ‘‘अविरलधारा’’ का मूल उद्देश्य है ताकि हमारे समाज की साँस्कृतिक एवं परंपरागत पहचान अक्षुण्य रहे और हम नयी पीढ़ी को अपने मूल की पहचान करा सके। इसलिए हम सम्पूर्ण साहित्यिक जगत से आवाह्न करते हैं कि अपने आस्तित्व की रक्षा करने हेतु अपने अनुज एवं युवा साहित्कारों की अंतर्निहित सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करने के उद्देश्य से प्रेरित इस ‘‘अविरलधारा’’ मंच से जुड़े भी-सहभागी भी बने एवं इस महायज्ञ को प्रखरता प्रदान करें।

                                    मनोज शर्मा ‘मनु’

 



142 दिन पहले 10-May-2024 3:20 PM

Manoj Sharma

          अभिव्यक्ति  एवं ग्राह्यिता
         प्राणी मात्र वो चाहे मानव हो या अन्य जीव, सभी को ईश्वर प्रदत्त एक गुण प्राप्त है जो उसे विशिष्ट प्रकार से अपनी भावनाओं को व्यक्त करने एवं दूसरे जीव द्वारा व्यक्त की गयी भावनाओं को समझने की शक्ति स्वतः प्राप्त कराता है। मानव को सभी प्राणियों में सर्वोच्चता के चलते उसने अपनी भावनाओं एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति के साधन भी आविष्कृत किये, वो चाहे बोले गये शब्द हों--भाव भंगिमाएं हो-स्वरों के उतार-चढ़ाव हो या लेखन हो। विश्व के किसी क्षेत्र विशेष में अभिव्यक्ति का यह साधन अलग-अलग रूपों में विकसित होता रहा और इस प्रकार  व्यक्त की गयी अभिव्यक्तियों की ग्राह्यता भी स्थापित होती गयी। भारतीय भाषाओं में क्षेत्रीय विविधताओं के बाद भी हर क्षेत्र में लेखन विधा अपनी मौलिकता के साथ  विकसित होती गयी। भारतीय संस्कृति के विकास के साथ-साथ,लेखन की विविध विधाओं का सृजन भी होता गया जैसे-गद्य,काव्य,नाटक,गीत,गजल,रेखाचित्र आदि। इसी क्रम में संगीत को भी प्राणिमात्र ने प्रमुखता से अपनाया। भारतीय संगीत में भी विविधताओं का वर्गीकरण सुस्पष्ट रूप से स्थापित हुआ। संगीत वह सशक्त माध्यम है जो अपने प्रस्तुतीकरण मात्र से भोर या साँझ,सुख और दुःख, वात्सल्य एवं भक्ति जैसे भाव की अभिव्यक्ति सुस्पष्टता से कर सकता है एवं उसकी ग्राह्यता संवेदनशीलता के साथ प्राणिमात्र की भावनाओं को उद्वेलित कर सकती है। हमारे स्वतंत्रता संग्राम की सफलता के पीछे भी अभिव्यक्ति के रूप में ऐसे नारे, ऐसे संबोधन, ऐसे वीर रस एवं देशभक्ति के गीत हुऐ हैं जिन्होंने पूरे भारत में अपनी ग्राह्यता सिद्ध करके एक जन आँदोलन को स्वतंत्रता की दहलीज पर सफलता पूर्वक पहुँचा दिया।

और Close       आज का युग अपनी आधुनिकता एवं विकास की गति को संजोये तीव्र गतिशीलता से हमें अभिव्यक्ति के नये-नये संसाधन उपलव्ध करा रहा है, जैसे टी0वी0,रेडियो से चलते-चलते वाट्सएप, एक्स, ए0आई0 चैट जी0पी0टी0 आदि। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में अभिव्यक्तियों का विस्तार एवं त्वरित संप्रेषण,तो है परन्तु मौलिकता नहीं हैं। संवेदनशीलता, स्थिर सोच और वैचारिक मंथन से ही हम तमाम माध्यमों का सहारा अवश्य ले परन्तु मौलिक सृजन की आवश्यकता फिर भी होगी।
           यदि आप याद करें तो बचपन की कुछ बाल पत्रिकाएं-चंदामामा,लोटपोट,चंपक,पराग,नंदन,गुड़िया,दीवाना आदि बच्चों के जीवन एवं आनन्द का अभिन्न अंग रही है। इसी प्रकार धर्मयुग, कादम्बिनी जैसी स्तरीय पत्रिकाओं की ग्राह्यता भी विस्तृत रही हैं। लेकिन कालाँतर में बदलते तकनीकी परिवेश में शतैः शनैः इनकी प्रासंगिकता विलुप्त होती गयी। 
     इन बदली हुयी पास्थितियों में यह अपरिहार्य है कि हम तकनीक का सहारा अवश्य ले परन्तु यह देखते चले कि हमारी अभिव्यक्ति की ग्राह्यता स्थापित रहे जो पाठक को जिज्ञासु बनाये रखे। नीचे लिखी कुछ पंक्तियाँ किसे याद नहीं-
बुंदेले हर बोलों से हमने सुनी कहानी थी...........
मेरा रंग दे बसंती चोला..........
उठो लाल अब आँखे खोलो..........
लाला जी ने केला खाया..........
टिवंकल-टिवंकल लिटिल स्टार.........
जाँनी-जाँनी यस पापा..........
क्या ये पंक्तियाँ भुलाये भूली जा सकती है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अति विपरीत परिस्थितियों में ऐसी रचना रची (श्री राम चरित 
मानस) जिसने संबंधित धर्मावलंबियों को जाग्रत किया,इस धर्मग्रंथ को अनुकरणीय बनाया और 

ग्राह्यता की स्थिति ऐसी है कि वर्तमान काल में भी ‘‘मानस पाठ’’ की सर्वोच्च प्राथमिकता आम जन मानस में उत्कृष्टता  के साथ स्थापित है। धर्मानुयापियों को अपने जीवन यापन एवं अपने कृतित्व के प्रेरणा तत्व धर्मग्रंथों में निहित उक्तियाँ एवं संदेश ही है।
संदेश यह है कि कृतित्व ऐसा हो जो साधारण मानव भी आपके द्वारा प्रस्तुत अभिव्यक्ति को सार्थक रूप से ग्रहण करें एवं उसकी ग्राह्यिता इस स्तर की हो जो हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर बन जाय।

                                                     मनोज शर्मा ‘मनु’

 



142 दिन पहले 10-May-2024 3:25 PM