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Manoj Kumar Srivastava

         कोरी कल्पना 
एक दिन मैं अपने दोस्तों के साथ बैठा था,

और Close शान-ओ-शौकत में खुद पे ऐंठा था,
सभी आपस में बाते करते बैठते,उठते,खाते,
और यूं ही हुड़दगं--मचाते।
सब अपने को सुपीरियर सिद्ध करने,लगे थे,
आधे खा पीकर बहकने लगे थे, 
अचानक मेरे मन में शरारत सूझी,
मैंने बैठे हुये लोगो से एक पहेली पूँछी ,
कि सामने बंधे घोड़े को कौन हँसा सकता है,
अपने जीवन को कौन मुसीबत में फँसा सकता है,
महफिल में सन्नाटा छाया,
और इसके लिए कोई आगे न आया।
थोड़ी देर बाद एक सज्जन आगे आये और बोले,
यहाँ पर कोई मूर्ख नहीं है, पर क्या आप कर सकते हो,
मैंने कहा हाँ-हाँ क्यों नहीं, सच नहीं तो झूँठ सही,
मैं उसे हसाऊँगा और आप सबको दिखाऊंगा,
मेरी बात सुनकर वहाँ एक बार फिर सन्नाटा छाया,
मैं क्या करना चाहता हूँ किसी की कुछ समझ में न आया,
सभी ने आपस में मिलकर मशवरा किया,
और फिर एक फैसला किया,
वही सज्जन आगे आये,
और एक शर्त अपने मुँह पर लाये। शर्त में अगर मैं जीता तो, 
 ऐसी ही पार्टी दो बार खाने को मिलेगी,   
 और अगर मैं हार गया तो, 
 मुझे अकेले ही सबको एक पार्टी देनी होगी, 
 मैं अपनी बात पर अड़ गया, 
 लेकिन सोच मे पड़ गया, 
 करूंगा ये सब कैसे, 
 कहाँ से लाऊंगा इतने पैसे।                          
एकाएक एक उपाय सूझा, 
मैंने घोड़े के कान मे कुछ फूंका,        
पहले तो उसने मुंह से कुछ थूका, 
फिर शायद उसका मौन टूटा,         
और वह खिलखिलाकर हँसने लगा, लोग सोचने लगे ये करिश्मा कैसे हो गया,                     
हमारा सबका भाग्य क्या एकदम सो गया।
मैं जीता था मेरे तो हौसले थे ही बुलंद,
इसलिये एक दूसरी शर्त लगा दी तुरन्त,
क्या तुम लोग इस घोड़े को रूला सकते हो,
किसी ने पीछे से कहा बेवकूफ क्या बकते हो,
लोगो को मौंका  मिला पैसा वापस करने का।
मैंने सोचा क्या जरूरत थी ऐसा कहने की,
मैंने फिर भी हामी भर ली,
लोगों ने शर्त दुगनी कर दी,
किसी ने कहा कौन घोड़े को रुला सकता है,
महज इत्तेफाक से वह सिर्फ हँस सकता है।
मैं फिर गया उसके पास,
इस बार मन में कम था विश्वास,
मैंने एक बार फिर की कोशिश और सुनाने लगा दास्तान,
उसने सोचा इसको झेलने से तो रोना है आसान,
और अगले ही पल वह रोने लगा,
मैं भी आश्चर्यचकित सा होने लगा।
हम एक बार फिर ऐसे ही जीत गये,
सारे महफिल के लोग हमसे खीज गये,
सभी अन्दर से टूटने लगे और हमसे पूँछने लगे,
कैसे किया है,ये कमाल,
घोड़े को कैसे कर दिया निहाल,
मैं अपने को हिटलर समझने लगा,
कैसे किया ये बकने लगा,
मैंने उन लोगों को बताया अब आप को भी बताऊंगा,
और कविता के अगले प्रकरण में घोड़े को नचाऊंगा।
मैंने जब घोड़े को हंसाया तो उसके कान में बताया,
मैं तुमसे रेस करूंगा और जीत जाऊंगा,
घोड़े के मुँह पर हँसी आयी क्यों मजाक करता है, मेरे साथ तुम क्या पी.टी. ऊषा भी नहीं दौड़ सकती है,
बाद में जब रुलाने की शर्त लगाई,
तब मैंने अक्ल दौड़ाई,
लेकिन उससे पहले मैं आप सबको देता हूँ दुहाई,
जिसकी समझ में यह व्यंग्य आयेगा,
सिर्फ वही ताली बजायेगा।
जो समझेगा अक्लमंद और बचा हुआ मूर्ख कहलायेगा,
‘‘देख घोड़े मैं तुझे रुलाने आया हूँ तुझे रोना पड़ेगा,
नहीं तो मेरे इस बेसुरे मुँह से कविता सुनेगा ’’।
                                   
                                                     
                                     मनोज कुमार श्रीवास्तव 
          परिचय
नाम-मनोज कुमार श्रीवास्तव
पिता स्व०- रामशंकर श्रीवास्तव
निवासी-बहरा सौदागर पूर्वी,हरदोई
शिक्षा-सिविल इंजीनियर
जन्म तिथि-20/05/1969
मो०न०-9450577770
रूचि-काव्य सृजन    

 



142 दिन पहले 10-May-2024 3:37 PM